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विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद

विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद
बाएं से योगेश गुप्ता, अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत। निरंजन देसाई, पूर्व राजनयिक। फाइल फोटो।

मुक्त व्यापार : समझौते हैं नई संभावनाएं

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच हुए शिखर सम्मेलन के बाद भारत और यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन (जिसमें रूस, कजाकिस्तान, अर्मीनिया, बेलारूस, किर्गीस्तान और तजाकिस्तान शामिल हैं) के बीच सीमित दायरे वाले मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की संभावनाएं तेजी से आगे बढ़ी हैं।

ज्ञातव्य है कि इस समय भारत दुनिया के कई प्रमुख देशों अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), कनाडा, दक्षिण अफ्रीका के साथ भी एफटीए को तेजी से अंजाम देने की डगर पर आगे बढ़ रहा है। ये ऐसे देश हैं, जिन्हें भारत जैसे बड़े बाजार की जरूरत है, और ये देश बदले में भारत के विशेष उत्पादों के लिए अपने बाजार के दरवाजे भी खोलने के लिए उत्सुक हैं। इससे घरेलू सामानों की पहुंच बहुत बड़े बाजार तक हो सकेगी।
गौरतलब है कि विगत 23 नवम्बर को वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि भारत-अमेरिका व्यापार नीति मंच के तहत जहां दोनों देशों के बीच महत्त्वपूर्ण व्यापार समझौता हुआ है वहीं दोनों देशों के बीच सीमित दायरे वाले मुक्त व्यापार समझौते की संभावनाएं बढ़ी हैं। पिछले एक दशक के बाद अब भारत द्वारा बड़े एफटीए पर हस्ताक्षर के लिए तैयारी सुकूनदेह है। भारत ने अपना पिछला व्यापार समझौता प्रमुख रूप से 2011 में मलयेशिया के साथ किया था। उसके बाद विगत 22 फरवरी, 2021 को मॉरिशस के साथ सीमित दायरे वाले एफटीए पर हस्ताक्षर हुए थे।
पिछले वर्ष 15 नवम्बर, 2020 को दुनिया के सबसे बड़े ट्रेड समझौते रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसेप) ने 15 देशों के हस्ताक्षर के बाद जो मूर्तरूप लिया है, भारत उस समझौते में शामिल नहीं हुआ है। इस बार फिर 28 अक्टूबर को आसियान देशों के शिखर सम्मेलन में आसियान सदस्यों के साथ वार्ताओं में प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट किया कि मौजूदा स्वरूप में भारत आरसेप का सदस्य होने का इच्छुक नहीं है। आरसेप समझौते को लेकर भारत की चिंताओं का अब तक भी निदान नहीं किया गया है। ऐसे में आरसेप से दूरी के बाद सरकार एफटीए को लेकर नई सोच के साथ आगे बढ़ी है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 30 और 31 अक्टूबर को जी-20 के शिखर सम्मेलन के दौरान जी-20 के राष्ट्र प्रमुखों के साथ की गई प्रभावी बातचीत के बाद सरकार यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, यूएई और ब्रिटेन के साथ सीमित दायरे वाले व्यापार समझौते के लिए तेजी से आगे बढ़ती दिख रही है।
उल्लेखनीय है कि 27 देशों की आर्थिक और राजनीतिक सहभागिता वाली यूरोपियन यूनियन के साथ भारत द्वारा 2013 से एफटीए पर कवायद चल रही है। यूरोपीय यूनियन भारतीय निर्यात का दूसरा सबसे बड़ा गंतव्य है। लेकिन कई मुद्दों पर मतभेद के कारण यूरोपीय संघ के साथ एफटीए को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। यद्यपि ऑस्ट्रेलिया, यूएई तथा ब्रिटेन सहित कुछ और देशों के साथ सीमित दायरे वाले एफटीए के लिए चर्चाएं संतोषजनक रूप में हैं, लेकिन कुछ चुनौतियां भी बनी हुई हैं।

अब भारत मुक्त व्यापार समझौते से संबंधित अपनी रणनीति में देश की कारोबार जरूरतों और वैश्विक व्यापार परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए जरूरी बदलाव के लिए तैयार है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जुलाई, 2020 में भारत और अमेरिका के बीच वर्चुअल वार्ता में यह विचार मंथन किया गया था कि दोनों देशों के बीच शुरुआत में सीमित कारोबारी समझौता किया जाए तथा फिर भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय कारोबार की मदों को चिह्नित करने के साथ एक प्रभावी एफटीए की संभावना को आगे बढ़ाया जाए। प्रधानमंत्री मोदी की सितम्बर, 2021 में अमेरिका की यात्रा और राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ वार्ता से भारत के अच्छे आर्थिक और कारोबारी संबंधों की नई संभावनाओं के परिदृश्य ने भारत और अमेरिका के बीच सीमित दायरे वाले कारोबारी समझौते की संभावनाएं बढ़ाई हैं।
वस्तुत: भारत की विभिन्न देशों के साथ एफटीए वार्ताओं के लंबा खिंचने का बड़ा कारण विनिर्माण जैसे कुछ बेहद गतिशील व्यापार क्षेत्रों में ऊंचे घरेलू शुल्कों का होना है। स्थिति यह है कि भारत अपने एफटीए समझौतों में लगभग सभी व्यापार को अधिक तरजीही शुल्क ढांचे के रूप में प्रस्तुत करने से हिचकिचाता रहा है। लिहाजा, अब एफटीए पर होने वाली वार्ताओं में तरजीही व्यापार उदारीकरण के समकक्ष स्तर और भारत में नियामकीय नीतिगत सुधारों की बात मानी जा रही है। निश्चित रूप से तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था के मद्देनजर एफटीए भारत के लिए लाभप्रद हो सकते हैं, लेकिन अब एफटीए का मसौदा बनाते समय ध्यान दिया जाना होगा कि एफटीए वाले देशों में कठिन प्रतिस्पर्धा के बीच कारोबारी कदम आगे कैसे बढ़ाए जा सकेंगे? विकसित देशों के साथ एफटीए में भारत के वार्ताकारों द्वारा डेटा संरक्षण नियम, ई-कॉमर्स, बौद्धिक सम्पदा तथा पर्यावरण जैसे नई पीढ़ी के कारोबारी मसलों को ध्यान में रखा जाना होगा। एफटीए के समय साझेदार देश से सहयोग और सदभाव की हर संभव गारंटी लेने से कारोबार की डगर आसान हो सकेगी। हमें एफटीए वाले देशों में कारोबारी प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए उत्पादों की कम लागत और अधिक गुणवत्ता की बुनियादी जरूरत के रूप में ध्यान रखना होगा।
हमें ध्यान में रखना होगा कि एफटीए का दूसरे अंतरराष्ट्रीय समझौते से बेहतर समन्वय किया जाए। एफटीए का लाभ उपयुक्त रूप से लेने के लिए जरूरी होगा कि सीमा शुल्क अधिकारियों, संबंधित विशेषज्ञ पेशेवरों और उद्योगपतियों द्वारा समन्वित और संगठित रूप से काम किया जाए। निश्चित रूप से कोरोना संक्रमण और आरसेप के कारण बदली हुई वैश्विक व्यापार और कारोबार की पृष्ठभूमि में एफटीए को लेकर भारत की रणनीति में बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए। अब भारत दुनिया के विभिन्न देशों के साथ नये सीमित दायरे वाले मुक्त व्यापार समझौतों की डगर पर और तेजी से आगे बढ़ेगा। हम उम्मीद करें कि अब यूरोपीय संघ, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूएई, ब्रिटेन, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन के साथ सीमित दायरे वाले एफटीए को शीघ्रतापूर्वक अंतिम रूप दिया जा सकेगा और इससे भारत के विदेश-व्यापार के नये अध्याय लिखे जा सकेंगे।

इंदौर की जीआईएस में देश-दुनिया के निवेशकों को लुभाने की कवायद

शेयर बाजार 11 नवंबर 2022 ,15:45

इंदौर की जीआईएस में देश-दुनिया के निवेशकों को लुभाने की कवायद

© Reuters. इंदौर की जीआईएस में देश-दुनिया के निवेशकों को लुभाने की कवायद

में स्थिति को सफलतापूर्वक जोड़ा गया:

भोपाल, 11 नवंबर (आईएएनएस)। मध्य प्रदेश की औद्योगिक नगरी इंदौर में अगले साल जनवरी माह में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट को सफल बनाने की कमान खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने थाम ली है। वे सीधे उद्योगपतियों से संवाद कर रहे हैं और मध्य प्रदेश में उपलब्ध सुविधाओं का सिलसिलेवार ब्यौरा भी देकर उन्हें निवेश के लिए न्यौता देने में जुटे हैं।इंदौर में 11 और 12 जनवरी को ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट होने जा रही है, आयोजन जहां एक और राज्य के लिए महत्वपूर्ण है तो वहीं सरकार के लिए भी खासा अहमियत रखता है। इसकी वजह भी है क्योंकि अगले साल राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। मुख्यमंत्री चौहान भी यह बात भलीभांति समझते है कि इस आयोजन का असर राज्य की अर्थव्यवस्था, रोजगार और सियासी तौर पर पड़ना तय है। यह आयोजन जितना सफल होगा उसका लाभ राजनीतिक तौर पर भी भाजपा को मिलेगा।

मुख्यमंत्री ने आयोजन को सफल बनाने के लिए प्रशासनिक जमावट को भी अहमियत दी है और यही कारण है कि उन्होंने उद्योग विभाग से जुड़े अधिकारियों में बड़ा बदलाव किया है। इसके साथ मुख्यमंत्री खुद मोर्चा संभाल चुके हैं और कई स्थानों पर जाकर उद्योगपतियों से संवाद भी कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री निवेशकों को आकर्षित करने के लिए राज्य में उपलब्ध सुविधाओं का ब्यौरा दे रहे हैं। मुख्यमंत्री अक्टूबर माह में पुणे में उद्योगपतियों से मिले और वहां उन्होंने इन्वेस्टमेंट अपॉच्र्युनिटी इन मध्य प्रदेश के जरिए यह बताया कि जमीन की उपलब्धता है, बिजली है, पर्याप्त पानी है, सड़क है और दक्ष मानव संसाधन के साथ वातावरण भी शांत है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री लगातार देश विदेश के प्रतिनिधियों से संवाद कर विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद रहे हैं। दिल्ली में कई देशों के राजदूतों से मिले।

मुख्यमंत्री बीते रोज मुंबई में थे और उन्होंने वहां राज्य में उपलब्ध संसाधनों का सिलसिलेवार जिक्र किया।मुख्यमंत्री की वहां रिलायंस (NS: RELI ) जिओ के पदाधिकारियों से चर्चा हुई और उन्होंने यह भरोसा दिलाया कि खजुराहो और जबलपुर के निकट स्थित पर्यटन स्थल भेड़ाघाट में 5जी सर्विस के फ्री वाईफाई जोन स्थापित किए जाएंगे। इसके अलावा मुख्यमंत्री की टाटा समूह के रतन टाटा से भी चर्चा हुई। फार्मा कंपनी के प्रतिनिधियों से भी मुख्यमंत्री का संवाद हुआ।

मुख्यमंत्री का कहना है कि मध्य प्रदेश के चंबल क्षेत्र में किसी जमाने में डाकू हुआ करते थे, अब साफ कर दिए गए हैं।चंबल क्षेत्र में अटल प्रोग्रेसिव वे भी बनाया विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद जा रहा है इसके दोनों तरफ इंडस्टियल कॉरीडेार बनेगा। इसी तरह मध्य प्रदेश के मध्य से नर्मदा एक्सप्रेस वे गुजरेगा जिसके दोनों तरफ इंडस्ट्रियल कॉरिडोर टाउनशिप बनेगी।

कुल मिलाकर राज्य के लिए इंदौर की इंवेस्टर्स समिट का बड़ा महत्व है। इस आयोजन पर सबक की नजरें भी है। कांग्रेस पूर्व में आयोजित समिट पर सवाल उठा रही है। मीडिया विभाग के प्रमुख के के मिश्रा ने तो पूर्व में आयोजित समिट पर श्वेत पत्र जारी करने की भी मांग की है।

पाकिस्तान की आत्मघाती अस्थिर विदेश नीति से कितना हुआ पाक को लाभ-नुकसान, जानिए

इस्लामाबाद: पाकिस्तान की विदेश नीति गिरगिट के रंग की तरह बदलती है. उसका बदलना कोई नई बात नहीं है. मुल्क के जन्म के साथ ही यह सिलसिला चल रहा है. पचहत्तर साल की विदेश नीति का मूल्यांकन किया जाए तो पता चलता है कि हुक्मरान कई बार इस नीति के कारण पाकिस्तान को बर्बादी के उस बिंदु तक ले जा चुके हैं, जहां से लौटना संभव नही होता. इसके बाद भी वे समझने को तैयार नहीं हैं.

ताजा प्रसंग वहां के नौजवान विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी से जुड़ा हुआ है. इस पढ़े-लिखे युवक से देश ने बड़ी उम्मीदें लगाई थीं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला है. उनके बयान एक बार फिर अमेरिका और यूरोप की छाया तले दिए जा रहे हैं. फ्रांस में उनका बयान अजीब था.

जो राष्ट्र दिवालियेपन के कगार पर हो, वह अपने अस्तित्व की कीमत पर एक मरे हुए सपने को जिंदा करना चाहता है इसलिए हिंदुस्तान की ओर से उसका करारा उत्तर बनता ही था.

विडंबना है कि पाकिस्तान दशकों से अपने हित संरक्षक चीन से अब दूरी बनाने की कवायद करता नजर आ रहा है. चीन को इस व्यवहार से बेशक झटका लगा होगा. उसने ऐसे समय पाकिस्तान को प्राणवायु दी जबकि वह वेंटिलेटर पर था और कभी भी उसकी सांसें दम तोड़ सकती थीं.

उसकी विदेश नीति में यह परिवर्तन शायद चीन को भी अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करे. पाक ने अपनी विदेश नीति को जिस तरह एक जलेबी जैसा बनाया है, उसके घातक परिणाम हो सकते हैं. भारतीय दृष्टिकोण से यह बेहतर नजर आता है, मगर एक देश आत्मघाती रवैये पर ही उतर आए तो कोई क्या कर सकता है.

दरअसल, पाकिस्तान के हुक्मरान विदेश नीति की अवधारणा और उसके महत्व को ही नहीं समझ पाए हैं. वे उसका अर्थ सिर्फ हिंदुस्तान का विरोध और कश्मीर छीनने की कार्रवाई समझते आए हैं. एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र की अपनी विदेश नीति होती है, जिसमें वह अपनी अस्मिता के मद्देनजर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से रिश्तों की नींव रखता है.

दुनिया के देशों से कुछ सीखता है और विश्व समुदाय को कुछ सिखाता है. तभी उसका स्वतंत्र अस्तित्व दिखाई देता है. भारत ने अपने पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रूप में एक ऐसा नेता पाया, जिसने विश्व समुदाय को विदेश नीति के मायने समझाए. भारत आज तक उस प्रतिष्ठा की कमाई का उपयोग कर रहा है. किसी भी देश के लिए यह गर्व का विषय हो सकता है.

लेकिन पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं हुआ. उसने अपने आईन यानी संविधान को बार-बार बदला. कितनी बार उसके चरित्र को छेड़ा गया, यह खुद वहां के राजनेताओं को याद नहीं होगा. जिस देश में संविधान को ही मजाक बना दिया गया हो तो बाकी नीतियों की मौलिकता और हिफाजत का सवाल ही नहीं उठता. इसका खामियाजा वहां की अवाम को बार-बार उठाना पड़ा है.

संसार का यह अलबेला मुल्क है, जो अपने पड़ोसी से नफरत और रंजिश के आधार पर देश को आगे बढ़ाना चाहता है. आपको याद होगा कि विभाजन के बाद लहूलुहान भारत पुनर्निर्माण का संकल्प लेकर समय की स्लेट पर भविष्य की इबारत लिखने में लगा था. यहां का नेतृत्व वैज्ञानिक सोच के आधार पर अपने सपनों को अमली जामा पहना रहा था. मगर पाकिस्तान अपने खेतों में नफरत तथा हिंसा के बीज बो रहा था.

उसने कश्मीर हथियाने के लिए पहले मजहबी आधार पर मुस्लिम देशों की जी-हुजूरी की लेकिन इस्लामी विश्व ने उसकी नीयत भांप ली और पाकिस्तानी मंसूबे कामयाब नहीं हुए. आज भी इस्लामिक संसार में पाकिस्तान को बहुत अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है. इसके बाद यह पड़ोसी अमेरिका की गोद में जाकर बैठ गया.

अमेरिका उन दिनों हिंदुस्तान से दूरी बनाकर चल रहा था इसलिए उसने पाकिस्तान को निरंतर पनाह दी. उसे आर्थिक मदद दी. इस पैसे से पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद फैलाया. लेकिन उसके इरादे कामयाब नहीं हुए. जब दाल नहीं गली तो उसने फिर विदेश नीति में बदलाव किया और सोवियत संघ की शरण में गया. सोवियत संघ ने पाकिस्तान की तुलना में भारत जैसे भरोसेमंद दोस्त को प्राथमिकता दी.

इसके बाद पाकिस्तान ने चीन को अपना अभिभावक बना लिया. चीन को अपने कब्जे वाले कश्मीर का एक बड़ा भू-भाग उपहार में सौंप दिया. उसे अपनी जमीन पर ग्वादर बंदरगाह बनाने दिया, जो यकीनन हिंदुस्तान के हितों के अनुकूल नहीं था. एक सोवियत संघ को छोड़कर सभी देशों ने पाकिस्तान में अपने स्वार्थ और सियासत साधे.

बोलचाल की भाषा में कहें तो पाकिस्तान को हर उस देश ने लूटा, जिसके पास वह गिड़गिड़ाता हुआ भारत के खिलाफ गया और कश्मीर दिलाने की भीख मांगता रहा. यह विडंबना है कि पाकिस्तान में सैनिक शासन रहा हो या तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार ने राज किया हो, किसी ने भी वैदेशिक, कूटनीतिक और सामरिक नजरिये से पाकिस्तान के दूरगामी व्यावहारिक हितों को नहीं देखा. भारत से दुश्मनी निभाते हुए उन्हें मर जाना मंजूर है लेकिन दोस्ती करके अमृत पीने में उनकी दिलचस्पी नहीं है.

मौजूदा विश्व में दर-दर के भिखारी देश पर कोई दांव नहीं लगाना चाहता. यह सच्चाई है कि बिना भारतीय सहायता के वह आर्थिक रूप से पनप नहीं सकता, चाहे कितने ही देशों की शरण में वह चला जाए. पाकिस्तान की अवाम भी इस हकीकत से वाकिफ है कि देर-सबेर उसे भारत की मदद लेने पर बाध्य होना पड़ेगा. यह अलग बात है कि हिंदुस्तान किसी ऐसे पड़ोसी की सहायता क्यों कर करेगा, जो हमेशा भारत के विनाश के मंसूबे बनाता रहा हो.

कारोबार सुगमता में हरियाणा, पंजाब टॉप अचीवर

कारोबार सुगमता में हरियाणा, पंजाब टॉप अचीवर

व्यापार सुधार कार्य योजना (बिजनेस रिफॉर्म एक्शन प्लान) को लागू करने व कारोबार सुगमता के मामले में हरियाणा और पंजाब देश के सबसे सफल (टॉप अचीवर) प्रदेशों की श्रेणी में शीर्ष सात में पहुंच गये हैं। इनके अलावा इस श्रेणी में आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और तेलंगाना हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतामरण ने बृहस्पतिवार को 'बीआरएपी 2020' विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद रिपोर्ट जारी की। इसमें हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश को सफल राज्यों (अचीवर) की श्रेणी में रखा गया है। वहीं, असम, केरल, गोवा, छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल, राजस्थान और पश्चिम बंगाल को बीआरएपी 2020 की आकांक्षी श्रेणी में रखा गया है।

रिपोर्ट के अनुसार, उभरते कारोबारी परिवेश की श्रेणी में दिल्ली, चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर, बिहार सहित 11 राज्य व केंद्र शासित प्रदेश हैं।

इस कवायद का उद्देश्य व्यापार सुधार कार्य योजना के तहत राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों का आकलन करके उनके बीच व्यावसायिक माहौल को बेहतर बनाने की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना है।

इस बार रैंकिंग नहीं : उद्योग संवर्द्धन एवं आंतरिक व्यापार विभाग बीआरएपी के तहत 2014 से रैंकिंग तैयार करता आया है। इस बार रैंकिंग प्रणाली में बदलाव किया गया है। इसे 4 श्रेणियों- सबसे सफल, सफल, आकांक्षी और उभरते कारोबारी परिवेश में बांटा गया है। इससे पहले रैंक घोषित किये जाते थे। विभाग के सचिव अनुराग जैन ने कहा कि प्रदेशों के बीच अंतर इतना कम था कि उन्हें रैंक में बांटने का कोई अर्थ नहीं था।

सुधारों का असर दिख रहा है : सीतारमण

वित्त मंत्री सीतारमण ने कहा कि 1991 के बाद से सुधारों की प्रकृति बदल गई है। अब जो सुधार हो रहे हैं उनका असर देखने को मिल रहा है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि बीआरएपी कवायद का उद्देश्य एक-दूसरे के सबसे बेहतर तौर-तरीकों से सीख लेने की संस्कृति बनाना है। इसके साथ ही सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में कारोबारी माहौल को सुधारना है, ताकि भारत दुनियाभर में सबसे पसंदीदा निवेश स्थल के रूप में उभर सके।

99+ प्रतिशत का स्कोर हरियाणा के उद्योग एवं वाणिज्य विभाग के प्रधान सचिव विजयेंद्र कुमार ने बताया कि 2020 की कार्य योजना में 15 क्षेत्रों में 301 सुधार बिंदु शामिल थे। इन सुधारों को लागू करने में हरियाणा ने 99+ प्रतिशत का स्कोर हासिल किया है। इसके अलावा निर्यात तैयारी सूचकांक 2021 में राज्य को पहला और ‘लॉजिस्टिक्स ईज एक्रोस डिफरेंट स्टेट्स सर्वे’ 2021 में दूसरा स्थान मिला है। उन्होंने कहा कि नयी औद्योगिक नीति का उद्देश्य राज्य में 5 लाख नौकरियां पैदा करना, 1 लाख करोड़ से अधिक का निवेश आकर्षित करना और निर्यात को दोगुना करके 2 लाख करोड़ करना है। राज्य में 100 राज्य-विधियों (अधिनियमों, नियमों और दिशा-निर्देशों) का पुनर्मूल्यांकन किया गया, जिससे निवेश के अनुकूल माहौल बना है।

तालिबान : बदल रही भारत की नीति

हाल में विदेश मंत्रालय के दो अधिकारियों को तालिबानी नेताओं से बात करने कतर भेजा गया। उसके बाद विदेश मंत्री कतर गए और वहां के शीर्ष नेतृत्व से मिले।

तालिबान : बदल रही भारत की नीति

बाएं से योगेश गुप्ता, अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत। निरंजन देसाई, पूर्व राजनयिक। फाइल फोटो।

हाल में विदेश मंत्रालय के दो अधिकारियों को तालिबानी नेताओं से बात करने कतर भेजा गया। उसके बाद विदेश मंत्री कतर गए और वहां के शीर्ष नेतृत्व से मिले। कतर के मुख्य वार्ताकार मुतलाक बिन मजीद अल कहतानी ने पुष्टि की है कि भारत ने तालिबान से संपर्क करना शुरू किया है। अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान से हटने को लेकर वहां काफी कुछ बदल रहा है। तालिबान मजबूत हो रहा है।

अफगानिस्तान में भारत का काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। मजबूत होते तालिबान के कारण भारत को अपनी नीति बदलनी पड़ रही। अफगानिस्तान से 20 साल बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी 11 सितंबर तक पूरी होगी। इस बीच तालिबान ने अफगानिस्तान के 50 जिलों पर कब्जा कर लिया है। तालिबान ने अफगानिस्तान के चार प्रमुख शहरों को भी घेरा हुआ है। अफगान नेशनल आर्मी और पुलिसबल कमजोर मनोबल, भ्रष्टाचार से जूझ रही हैं। काबुल से मिलने वाली सहायता में कमी के कारण सुरक्षाबलों ने पहले ही तालिबान के सामने आत्मसमर्पण किया हुआ है। जो बचे हैं, वे तालिबान के आत्मघाती कार बम और आइईडी हमलों का सामना करने में असमर्थ हैं।

भारत की कवायद

कतर की राजधानी दोहा में भारतीय अफसरों और तालिबानी नेताओं के बीच बातचीत हुई है। विदेश मंत्रालय आधिकारिक तौर पर इस बारे में चुप्पी साधे हुए है। कतर में तालिबानी नेताओं से बातचीत को अफगान-तालिबान वार्ता का एक हिस्सा बताया जा रहा है। दरअसल, कूटनीतिक गलियारे में इस कवायद को गंभीरता से लिया जाने लगा है, क्योंकि विदेश मंत्री एस जयशंकर दो हफ्तों में दो बार दोहा पहुंचे और कतर के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात की। कतर में तालिबान का राजनीतिक नेतृत्व जमा हुआ है। वे लोग वहां कई पक्षों से बात कर रहे हैं।

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जाहिर है, विश्व मंच पर यह मान लिया गया है कि अफगानिस्तान को लेकर तालिबान अहम खिलाड़ी बना हुआ है। ऐसे में भारत भी अफगानिस्तान की बदलती हकीकत को स्वीकार करके तालिबान को तवज्जो देने लगा है। विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद जानकारों की राय में इस तरह के संपर्क किसी न किसी स्तर पर पहले भी थे। वर्ष 1990 के आसपास तो तालिबान ने खुद भारत से संपर्क किया था। खुफिया स्तर पर तो संपर्क रहा ही है।

फिलहाल, दोहा जैसी कवायद पहली बार हो रही है। भारत ने अफगानिस्तान को पेशेवर, ढांचागत विकास, यातायात और सुरक्षा के लिए बड़ी आर्थिक सहायता प्रदान की है। भारतीय बाजारों में अफगान उत्पादों के शुल्क मुक्त पहुंच ने इस देश को और मजबूत बनाने में मदद की है। वर्ष 2018-19 में भारत और अफगानिस्तान के बीच लिपक्षीय व्यापार करीब 1.5 अरब डॉलर का था। भारत अफगानिस्तान में भारत एक व्यापक आधार वाली प्रतिनिधि सरकार की स्थापना चाहता है, जो शांति, स्थिरता और समावेशी शासन प्रदान कर सके और यह सुनिश्चित कर सके कि पिछले 20 वर्षों की प्रगति सुरक्षित है।

तालिबान को लेकर आशंकाएं

भारतीय कूटनीतिज्ञों का मानना है कि अमेरिकी मदद, सलाहकारों और हथियारों के अभाव में ऐसी आशंका है कि राजधानी काबुल थोड़े समय में तालिबानों के हाथ में आ जाए। हालांकि, अफगान राष्ट्रपति आशावादी बने हुए हैं। अगर ईरान, रूस और अन्य देशों लारा समर्थित हजारा, ताजिक और उजबेक नेताओं जैसे अन्य जातीय समूह तालिबान के खिलाफ सक्रिय रूप से लड़ते हैं, तो अफगानिस्तान में गृह युद्ध लंबा खिंच सकता है। अफगानिस्तान में मौजूदा हुकूमत से हमारे बहुत अच्छे रिश्ते हैं। लेकिन बदलती परिस्थितियों में तालिबान भी भारत से बातचीत चाहता है। विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद ऐसे में भारतीय राजनयिक नई दोस्ती परख रहे हैं। हालात अब वैसे नहीं रहे, जैसे कंधार विमान अपहरण कांड के वक्त थे। अब बदलाव का संकेत देते हुए विदेश मंत्रालय ने हाल में कहा कि हमने हमेशा अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देना चाहा है। इसके लिए हम कई पक्षों से संपर्क में हैं।’

पाकिस्तान-तालिबान रिश्ते

पाकिस्तान और तालिबान के गहरे रिश्ते हैं। वर्ष 1989 में सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से निकलते वक्त जो समझौता हुआ था, उसमें पाकिस्तान भी शामिल था। जब पाकिस्तान ने 2001 में अमेरिका को सैन्य और वायुसेना के अड्डे दिए तो तालिबान उसका दुश्मन बन गया। पेशावर के सैन्य स्कूल पर हमला तालिबान ने कराया था। अमेरिका ने सैकड़ों बार पाकिस्तान पर आरोप लगाया कि वह तालिबानी गुट हक्कानी नेटवर्क को पनाह दे रहा है।


तालिबान क्या है

1979 से 1989 तक अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का शासन रहा। अमेरिका, पाकिस्तान और अरब देश अफगान लड़ाकों (मुजाहिदीन) को पैसा और हथियार देते रहे। जब सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान छोड़ा तो मुजाहिदीन गुट एक बैनर तले आ गए। इसको नाम दिया गया तालिबान। हालांकि अब तालिबान कई गुटों में बंट चुका है। तालिबान में 90 फीसद पश्तून कबायली विदेश व्यापार नीति में बदलाव की कवायद लोग हैं। इनमें से ज्यादातर पाकिस्तान के मदरसों से जुड़े हैं।
– पश्चिमी और उत्तरी पाकिस्तान में भी काफी पश्तून हैं। अमेरिका और पश्चिमी देश इन्हें अफगान तालिबान और पाकिस्तानी तालिबान के तौर पर बांटकर देखते हैं। 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत रही। तब सिर्फ तीन देशों – सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने इन्हें मान्यता दी।

क्या कहते
हैं जानकार

तालिबान अपने नियंत्रण का विस्तार करने और ताकतवर बनने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और वरिष्ठ नेता अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने अमेरिकी राष्ट्रपति से भरोसा लिया है कि वे विभिन्न सहायता प्रदान करना जारी रखेंगे। भारत की अहम भूमिका है, क्योंकि भारत ने अफगानिस्तान को बड़ी आर्थिक सहायता दी है।
– योगेश गुप्ता, अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत

तालिबान के साथ भारत किस स्तर पर बात कर रहा है और भविष्य में करेगा, यह सब इस पर निर्भर करता है कि तालिबान लोकतांत्रिक तरीके अपनाता है या नहीं। अब परिस्थितियां पहले जैसी नहीं हैं। 20 साल में काफी कुछ बदला है। भारत हमेशा से ही अफगानिस्तान के आम लोगों के साथ ही खड़ा है और भारत ने अफगानिस्तान के साथ गहरे संबंध स्थापित किए हैं।
– निरंजन देसाई, पूर्व राजनयिक

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